फार्मेसी पेशे के गिद्ध, Vultures of Pharmacy Profession
जब से बिहार में एक लाइलाज बीमारी के कारण बहुत से बच्चों की मृत्यु हुई है तबसे गिद्ध शब्द बहुत प्रचलन में है. दरअसल यह शब्द इस दुखद घटना पर मीडिया की रिपोर्टिंग को लेकर है.
मीडिया रिपोर्टिंग की इस घटना को 1994 में घटी उस घटना से जोड़कर देखा जा रहा है जिसमे एक फोटोग्राफर ने सूडान में भुखमरी की शिकार एक मासूम बच्ची की फोटो को गिद्ध के साथ क्लिक किया था. इस फोटो में एक गिद्ध को उस बच्ची की मृत्यु का इन्तजार करते हुए दिखाया गया था.
इस फोटोग्राफर ने इस घटना के कुछ माह पश्चात आत्महत्या कर ली थी क्योंकि किसी ने उसे घटना वाले दिन दूसरे गिद्ध की संज्ञा दे दी तथा कहा कि अगर वह इंसानियत दिखाता तो बजाए फोटो खींचने के वह उस बच्ची को किसी सुरक्षित जगह या किसी कैंप में पहुँचा सकता था.
परन्तु उसने अपने निजी स्वार्थ के लिए उस बच्ची को मात्र एक फोटो खींचने की वस्तु समझा. ज्ञातव्य है कि इस पत्रकार का नाम केविन कार्टर था जिन्होंने इस फोटो के लिए 1994 में पुलित्जर पुरस्कार जीता था. विकिपीडिया पर यह आर्टिकल पढने के लिए "द वलचर एंड लिटिल गर्ल" पर क्लिक करें.
बिहार के हॉस्पिटल में भी भारत में कुछ मीडिया हाउस तथा पत्रकार अपने निजी स्वार्थ (टीआरपी) के लिए सब नियम कायदे ताक पर रखकर रिपोर्टिंग कर रहे थे.
ये लोग आईसीयू जैसी सवेंदनशील जगह पर घुसकर इलाज कर रहे डॉक्टर्स से अनर्गल सवाल कर रहे थे जबकि वो सवाल प्रशासन से किये जाने थे. बहुत सी जगह इस रिपोर्टिंग की तुलना उस गिद्ध वाली फोटो के साथ की गई.
दरअसल गिद्ध केवल मीडिया में ही नहीं हर प्रोफेशन में होते हैं. फार्मेसी प्रोफेशन भी इनसे अछूता नहीं है. फर्क इतना ही है कि मीडिया वाले गिद्ध सभी को अपना शिकार बना रहे हैं और फार्मेसी वाले गिद्ध फार्मेसी प्रोफेशन के लोगों को अपना शिकार बना रहे हैं.
ये गिद्ध फार्मेसी की कमियों तथा नकारात्मकता को कभी भी अन्य लोगों के सम्मुख नहीं आने देना चाहते हैं. फार्मेसी फील्ड की हर कमी को ये दूर करने के बजाए उसे छिपाकर रखना चाहते हैं.
जब कोई इन कमियों के सम्बन्ध में बात करता है या कहीं उजागर करने की कोशिश करता है तो ये गिद्ध उसे संगठित होकर धमकाने की चेष्टा करते हैं.
आखिर फार्मेसी फील्ड की कमियों को दूर करने में इनकी रुचि क्यों नहीं है? दरअसल इसकी मुख्य वजह यह है कि इन गिद्धों ने तो आपसी रजामंदी तथा सामंजस्य से अपना-अपना ठिकाना ढूंढ रखा है तथा अन्य लोगों से इन्हें कुछ लेना देना नहीं है.
जब भी फार्मेसी फील्ड में बेरोजगारी की या अन्य कोई नकारात्मक खबर कहीं आती है तो ये सभी मिलकर उसे दबाने में लग जाते हैं. पता नहीं इन्हें किस बात का भय है?
ऐसा नहीं है कि बेरोजगारी की समस्या सिर्फ फार्मेसी प्रोफेशन में ही है. कुछ को छोडकर लगभग सभी प्रोफेशन इस समस्या से ग्रसित हैं फिर फार्मेसी में ऐसा डर क्यों है?
रोजगार के पर्याप्त साधन ना होने के पश्चात भी यह आभासी माहौल क्यों बनाया जाता है कि यहाँ रोजगार की प्रचुरता है. सच्चाई को स्वीकारने में क्या परेशानी है.
जब भी रोजगार की बात आती है तो यही कहा जाता है कि फार्मेसी करने वाला कोई भी व्यक्ति बेरोजगार नहीं होता है, हर आदमी कुछ न कुछ करता है.
यह भी एक कडवा सच है कि फार्मेसी में प्रवेश लेने वाले को इसके सकारात्मक पक्षों में एक पक्ष यह भी गिनाया जाता है कि आपको फार्मेसी करने के बाद और कुछ नहीं तो लाइसेंस किराये देने से ही पैसे मिल जाएँगे.
किसी भी प्रोफेशन के कर्णधार उस प्रोफेशन की शिक्षा देने वाले अध्यापक होते हैं परन्तु बड़े अफसोस के साथ बताना पड़ रहा है कि इस प्रोफेशन में अधिकाँश अध्यापकों की तनख्वाह ही बीस हजार रूपए से कम है. ये बीस हजार रूपए भी बड़ी छाती ठोककर नियंत्रणकारी संस्थाओं को बताकर दिए जाते हैं.
आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जब टीचर्स को ही अधिक वेतन नहीं मिलता तो फिर अन्य की क्या हालत होगी? उस पर टीचर्स से सारे नॉन टीचिंग कार्य जैसे एडमिशन के लिए गाँव-गाँव जाकर काउंसलिंग करना, सारे दिन टेली कॉलर बनाकर कॉल करना आदि भी करवाए जाते हैं.
बहुत से कॉलेजों में तो टीचर्स को एडमिशन की शर्त पर ही नौकरी दी जाती है और एडमिशन न होने पर टीचर्स को नौकरी से विदा कर दिया जाता है.
ये गिद्ध इन टीचर्स को भी डराकर रखते हैं और इनके खौफ के कारण कोई भी टीचर इन अव्यवस्थाओं के सम्बन्ध में कुछ भी बोल नहीं पाता है.
हमने कई टीचर्स से इस सम्बन्ध में बात की परन्तु सामने आकर कोई नहीं बोलना चाहता है क्योंकि सभी की व्यक्तिगत मजबूरियाँ है. अगर सामने आये तो जो मिल रहा है वो भी नहीं मिलेगा तथा कोई नौकरी भी नहीं देगा.
टीचर्स की हितकारी संस्थाओं ने भी आजतक एकजुट होकर टीचर्स के हितों के लिए कुछ नहीं किया है. इन संस्थाओं ने ना तो कभी टीचर्स की सैलरी बढाने के लिए और ना ही कभी उसे असमय तथा अकारण नौकरी से निकाले जाने पर अपना दवाब बनाया है.
दरअसल इस प्रोफेशन का आनंद ही गिद्ध उठा रहे हैं. पिछले कई दशकों से भारत के फार्मेसी प्रोफेशन पर इन गिद्धों का ही कब्जा रहा है.
जो फायदा उठा रहा है उसे अपनी पोजीशन जाने का तथा अपने निजी हितों के हनन का डर हमेशा बना रहता है. तभी तो ये लोग केवल फार्मेसी के उजले पक्ष के सम्बन्ध में ही बात करते हैं.
संत कबीर ने कहा था कि “निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय” अर्थात जो हमारी निंदा करता है, उसे अधिकाधिक अपने पास ही रखना चाहिए.
वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियाँ बता कर हमारे स्वभाव को साफ करता है. फार्मेसी फील्ड में निंदक के लिए जगह क्यों नहीं है? आखिर हम कब तक कुएँ के मेंढक बनकर जीते रहेंगे?
दरअसल अभी एडमिशन का समय चल रहा है और इस समय कईयों की दुकानदारी अच्छी चल रही है. बहुत सी जगह सुविधाओं के साथ डी फार्म में एडमिशन दिए जा रहे हैं.
इस कोर्स में दी जाने वाली सहुलतों के लिए पूरा पैकेज सिस्टम बनाया गया है. अगर आपको पूरे वर्ष की अटेंडेंस से छूट चाहिए तो अलग पैकेज है और अगर इस छूट के साथ-साथ पास भी होना है, तो अलग पैकेज है.
यहाँ तक सुनने में आ रहा है कि कई जगह तो साल में केवल पंद्रह दिन ही बुलाया जा रहा है. ऐसे लोग गिद्धों की मदद से खुलेआम डिप्लोमा खरीद रहे हैं. कई बार सोशल मीडिया पर भी इस बात के विज्ञापन देखने को मिलते हैं. अगर कोई कोर्स इस तरह से बेचा जाएगा तो फिर रोजगार कहाँ से पैदा होगा?
जिन लोगों के पास पहले से स्वयं का सेटअप है उन्हें तो इससे फायदा है लेकिन जो इस सेटअप में सक्षम नहीं है उसके सामने दो ही विकल्प रह जाते हैं, या तो वो बेरोजगारी का सामना करे या फिर वह अपने लाइसेंस को गिरवी रख दे.
लाइसेंस को गिरवी रखने से बेरोजगारी का रूप बदल जाता है और वह छिपी बेरोजगारी में परिवर्तित हो जाती है. इस प्रकार की बेरोजगारी में फार्मासिस्ट आंकड़ों के हिसाब से बेरोजगार नहीं रहता है क्योंकि उसने अपना लाइसेंस किराये पर देकर सरकार तथा गिद्धों की नजर में अपनी बेरोजगारी को रोजगार में बदल लिया है.
पैसे में डिप्लोमा बिकने की वजह से कई सक्षम लोगों का रुझान इस कोर्स को खोलने में हुआ है और नतीजन लगभग एक हजार के आसपास नए कॉलेज इस वर्ष खुले हैं.
बहुत से लोगों के लिए इन कॉलेजों का खुलना बहुत शुभ साबित होगा क्योंकि इन नए कॉलेजों के माध्यम से लक्ष्मी जी उनपर मेहरबान होगी.
नए कॉलेज एडमिशन से लेकर इंस्पेक्शन आदि तक के लिए मुहमाँगा पैसा खर्च करेंगे और जाहिर है कि उसका कुछ हिस्सा प्रभावशाली लोगों के पास ही जाएगा.
हमें यह समझना होगा कि लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने का हक है तथा कोई भी किसी को डराकर चुप नहीं करा सकता है.
शोले फिल्म में गब्बर सिंह ने कहा था कि “जो डर गया वो मर गया” इसलिए भययुक्त जीवन, जीना नहीं होता है, यह मात्र जीवन काटना कहलाता है.
मीडिया रिपोर्टिंग की इस घटना को 1994 में घटी उस घटना से जोड़कर देखा जा रहा है जिसमे एक फोटोग्राफर ने सूडान में भुखमरी की शिकार एक मासूम बच्ची की फोटो को गिद्ध के साथ क्लिक किया था. इस फोटो में एक गिद्ध को उस बच्ची की मृत्यु का इन्तजार करते हुए दिखाया गया था.
इस फोटोग्राफर ने इस घटना के कुछ माह पश्चात आत्महत्या कर ली थी क्योंकि किसी ने उसे घटना वाले दिन दूसरे गिद्ध की संज्ञा दे दी तथा कहा कि अगर वह इंसानियत दिखाता तो बजाए फोटो खींचने के वह उस बच्ची को किसी सुरक्षित जगह या किसी कैंप में पहुँचा सकता था.
परन्तु उसने अपने निजी स्वार्थ के लिए उस बच्ची को मात्र एक फोटो खींचने की वस्तु समझा. ज्ञातव्य है कि इस पत्रकार का नाम केविन कार्टर था जिन्होंने इस फोटो के लिए 1994 में पुलित्जर पुरस्कार जीता था. विकिपीडिया पर यह आर्टिकल पढने के लिए "द वलचर एंड लिटिल गर्ल" पर क्लिक करें.
बिहार के हॉस्पिटल में भी भारत में कुछ मीडिया हाउस तथा पत्रकार अपने निजी स्वार्थ (टीआरपी) के लिए सब नियम कायदे ताक पर रखकर रिपोर्टिंग कर रहे थे.
ये लोग आईसीयू जैसी सवेंदनशील जगह पर घुसकर इलाज कर रहे डॉक्टर्स से अनर्गल सवाल कर रहे थे जबकि वो सवाल प्रशासन से किये जाने थे. बहुत सी जगह इस रिपोर्टिंग की तुलना उस गिद्ध वाली फोटो के साथ की गई.
दरअसल गिद्ध केवल मीडिया में ही नहीं हर प्रोफेशन में होते हैं. फार्मेसी प्रोफेशन भी इनसे अछूता नहीं है. फर्क इतना ही है कि मीडिया वाले गिद्ध सभी को अपना शिकार बना रहे हैं और फार्मेसी वाले गिद्ध फार्मेसी प्रोफेशन के लोगों को अपना शिकार बना रहे हैं.
ये गिद्ध फार्मेसी की कमियों तथा नकारात्मकता को कभी भी अन्य लोगों के सम्मुख नहीं आने देना चाहते हैं. फार्मेसी फील्ड की हर कमी को ये दूर करने के बजाए उसे छिपाकर रखना चाहते हैं.
जब कोई इन कमियों के सम्बन्ध में बात करता है या कहीं उजागर करने की कोशिश करता है तो ये गिद्ध उसे संगठित होकर धमकाने की चेष्टा करते हैं.
आखिर फार्मेसी फील्ड की कमियों को दूर करने में इनकी रुचि क्यों नहीं है? दरअसल इसकी मुख्य वजह यह है कि इन गिद्धों ने तो आपसी रजामंदी तथा सामंजस्य से अपना-अपना ठिकाना ढूंढ रखा है तथा अन्य लोगों से इन्हें कुछ लेना देना नहीं है.
जब भी फार्मेसी फील्ड में बेरोजगारी की या अन्य कोई नकारात्मक खबर कहीं आती है तो ये सभी मिलकर उसे दबाने में लग जाते हैं. पता नहीं इन्हें किस बात का भय है?
ऐसा नहीं है कि बेरोजगारी की समस्या सिर्फ फार्मेसी प्रोफेशन में ही है. कुछ को छोडकर लगभग सभी प्रोफेशन इस समस्या से ग्रसित हैं फिर फार्मेसी में ऐसा डर क्यों है?
रोजगार के पर्याप्त साधन ना होने के पश्चात भी यह आभासी माहौल क्यों बनाया जाता है कि यहाँ रोजगार की प्रचुरता है. सच्चाई को स्वीकारने में क्या परेशानी है.
जब भी रोजगार की बात आती है तो यही कहा जाता है कि फार्मेसी करने वाला कोई भी व्यक्ति बेरोजगार नहीं होता है, हर आदमी कुछ न कुछ करता है.
यह भी एक कडवा सच है कि फार्मेसी में प्रवेश लेने वाले को इसके सकारात्मक पक्षों में एक पक्ष यह भी गिनाया जाता है कि आपको फार्मेसी करने के बाद और कुछ नहीं तो लाइसेंस किराये देने से ही पैसे मिल जाएँगे.
किसी भी प्रोफेशन के कर्णधार उस प्रोफेशन की शिक्षा देने वाले अध्यापक होते हैं परन्तु बड़े अफसोस के साथ बताना पड़ रहा है कि इस प्रोफेशन में अधिकाँश अध्यापकों की तनख्वाह ही बीस हजार रूपए से कम है. ये बीस हजार रूपए भी बड़ी छाती ठोककर नियंत्रणकारी संस्थाओं को बताकर दिए जाते हैं.
आप अंदाजा लगा सकते हैं कि जब टीचर्स को ही अधिक वेतन नहीं मिलता तो फिर अन्य की क्या हालत होगी? उस पर टीचर्स से सारे नॉन टीचिंग कार्य जैसे एडमिशन के लिए गाँव-गाँव जाकर काउंसलिंग करना, सारे दिन टेली कॉलर बनाकर कॉल करना आदि भी करवाए जाते हैं.
बहुत से कॉलेजों में तो टीचर्स को एडमिशन की शर्त पर ही नौकरी दी जाती है और एडमिशन न होने पर टीचर्स को नौकरी से विदा कर दिया जाता है.
ये गिद्ध इन टीचर्स को भी डराकर रखते हैं और इनके खौफ के कारण कोई भी टीचर इन अव्यवस्थाओं के सम्बन्ध में कुछ भी बोल नहीं पाता है.
हमने कई टीचर्स से इस सम्बन्ध में बात की परन्तु सामने आकर कोई नहीं बोलना चाहता है क्योंकि सभी की व्यक्तिगत मजबूरियाँ है. अगर सामने आये तो जो मिल रहा है वो भी नहीं मिलेगा तथा कोई नौकरी भी नहीं देगा.
टीचर्स की हितकारी संस्थाओं ने भी आजतक एकजुट होकर टीचर्स के हितों के लिए कुछ नहीं किया है. इन संस्थाओं ने ना तो कभी टीचर्स की सैलरी बढाने के लिए और ना ही कभी उसे असमय तथा अकारण नौकरी से निकाले जाने पर अपना दवाब बनाया है.
दरअसल इस प्रोफेशन का आनंद ही गिद्ध उठा रहे हैं. पिछले कई दशकों से भारत के फार्मेसी प्रोफेशन पर इन गिद्धों का ही कब्जा रहा है.
जो फायदा उठा रहा है उसे अपनी पोजीशन जाने का तथा अपने निजी हितों के हनन का डर हमेशा बना रहता है. तभी तो ये लोग केवल फार्मेसी के उजले पक्ष के सम्बन्ध में ही बात करते हैं.
संत कबीर ने कहा था कि “निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय” अर्थात जो हमारी निंदा करता है, उसे अधिकाधिक अपने पास ही रखना चाहिए.
वह तो बिना साबुन और पानी के हमारी कमियाँ बता कर हमारे स्वभाव को साफ करता है. फार्मेसी फील्ड में निंदक के लिए जगह क्यों नहीं है? आखिर हम कब तक कुएँ के मेंढक बनकर जीते रहेंगे?
दरअसल अभी एडमिशन का समय चल रहा है और इस समय कईयों की दुकानदारी अच्छी चल रही है. बहुत सी जगह सुविधाओं के साथ डी फार्म में एडमिशन दिए जा रहे हैं.
इस कोर्स में दी जाने वाली सहुलतों के लिए पूरा पैकेज सिस्टम बनाया गया है. अगर आपको पूरे वर्ष की अटेंडेंस से छूट चाहिए तो अलग पैकेज है और अगर इस छूट के साथ-साथ पास भी होना है, तो अलग पैकेज है.
यहाँ तक सुनने में आ रहा है कि कई जगह तो साल में केवल पंद्रह दिन ही बुलाया जा रहा है. ऐसे लोग गिद्धों की मदद से खुलेआम डिप्लोमा खरीद रहे हैं. कई बार सोशल मीडिया पर भी इस बात के विज्ञापन देखने को मिलते हैं. अगर कोई कोर्स इस तरह से बेचा जाएगा तो फिर रोजगार कहाँ से पैदा होगा?
जिन लोगों के पास पहले से स्वयं का सेटअप है उन्हें तो इससे फायदा है लेकिन जो इस सेटअप में सक्षम नहीं है उसके सामने दो ही विकल्प रह जाते हैं, या तो वो बेरोजगारी का सामना करे या फिर वह अपने लाइसेंस को गिरवी रख दे.
लाइसेंस को गिरवी रखने से बेरोजगारी का रूप बदल जाता है और वह छिपी बेरोजगारी में परिवर्तित हो जाती है. इस प्रकार की बेरोजगारी में फार्मासिस्ट आंकड़ों के हिसाब से बेरोजगार नहीं रहता है क्योंकि उसने अपना लाइसेंस किराये पर देकर सरकार तथा गिद्धों की नजर में अपनी बेरोजगारी को रोजगार में बदल लिया है.
पैसे में डिप्लोमा बिकने की वजह से कई सक्षम लोगों का रुझान इस कोर्स को खोलने में हुआ है और नतीजन लगभग एक हजार के आसपास नए कॉलेज इस वर्ष खुले हैं.
बहुत से लोगों के लिए इन कॉलेजों का खुलना बहुत शुभ साबित होगा क्योंकि इन नए कॉलेजों के माध्यम से लक्ष्मी जी उनपर मेहरबान होगी.
नए कॉलेज एडमिशन से लेकर इंस्पेक्शन आदि तक के लिए मुहमाँगा पैसा खर्च करेंगे और जाहिर है कि उसका कुछ हिस्सा प्रभावशाली लोगों के पास ही जाएगा.
हमें यह समझना होगा कि लोकतंत्र में सभी को अपनी बात कहने का हक है तथा कोई भी किसी को डराकर चुप नहीं करा सकता है.
शोले फिल्म में गब्बर सिंह ने कहा था कि “जो डर गया वो मर गया” इसलिए भययुक्त जीवन, जीना नहीं होता है, यह मात्र जीवन काटना कहलाता है.
लेखक, Writer
रमेश शर्मा {एम फार्म, एमएससी (कंप्यूटर साइंस), पीजीडीसीए, एमए (इतिहास), सीएचएमएस}
डिस्क्लेमर, Disclaimer
इस लेख में शैक्षिक उद्देश्य के लिए दी गई जानकारी विभिन्न ऑनलाइन एवं ऑफलाइन स्त्रोतों से ली गई है जिनकी सटीकता एवं विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। आलेख की जानकारी को पाठक महज सूचना के तहत ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी उपयोग की जिम्मेदारी स्वयं उपयोगकर्ता की ही रहेगी।
अगर आलेख में किसी भी तरह की स्वास्थ्य सम्बन्धी सलाह दी गई है तो वह किसी भी तरह से योग्य चिकित्सा राय का विकल्प नहीं है। अधिक जानकारी के लिए हमेशा किसी विशेषज्ञ या अपने चिकित्सक से परामर्श जरूर लें।
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Pharmacy