कोरोना में भी नहीं है फार्मासिस्ट की अहमियत, No value of pharmacist even in Corona
जब से इस दुनिया में कोविड 19 नामक महामारी का प्रकोप छाया है तब से दुनियाभर के स्वास्थ्यकर्मियों के कन्धों पर अतिरिक्त जिम्मेदारी आ गई है. इस महामारी से लड़ने वाले इन स्वास्थ्यकर्मियों को कोरोना वारियर्स कहा जा रहा है.
अनेक देशों में अलग-अलग तरीकों से इन योद्धाओं के प्रति सम्मान प्रकट किया जा रहा है. भारत में भी इनके उत्साहवर्धन के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आह्वान पर कभी ताली बजाई जा रही है और कभी दिए जलाए जा रहे हैं.
इन स्वास्थ्यकर्मियों में डॉक्टर्स, नर्सिंगकर्मी, पैरामेडिकल स्टाफ, सफाई कर्मी आदि का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा है.
खास बात यह है कि इन स्वास्थ्यकर्मियों में फार्मासिस्ट का नाम नदारद है. फार्मासिस्ट के लिए ना तो कोई सम्मान प्रकट किया जा रहा है और ना ही इसको कोरोना वारियर्स में गिना जा रहा है. परंपरागत रूप से जिस प्रकार फार्मासिस्ट पहले उपेक्षित था ठीक उसी प्रकार फार्मासिस्ट आज भी उपेक्षित है.
इस बात का अंदाजा लगाना बिलकुल भी मुश्किल नहीं है कि जब वैश्विक महामारी के समय में भी स्वास्थ्य सेवाओं में फार्मासिस्ट की भूमिका की कोई अहमियत नहीं है तब सामान्य दिनों में फार्मासिस्ट की कितनी अहमियत होती होगी.
फार्मासिस्ट को भारत सरकार कितना जानती और मानती है, इसका अंदाजा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उस ट्वीट से लगाया जा सकता है जिसमे उन्होंने सभी देशवासियों से कोरोना योद्धाओं का सम्मान करने की बात कही है. इन्होंने इन कोरोना योद्धाओं में डॉक्टर्स, नर्सेज, सफाईकर्मियों एवं पुलिसकर्मियों को शामिल किया है.
विभिन्न राज्य सरकारें भी फार्मासिस्ट के साथ ऐसा ही व्यवहार कर रही हैं. लगता है कि फार्मासिस्ट की अहमियत ना तो सरकार की नजर में है और ना ही जनता की नजर में है.
ऐसा लगता है कि सरकार की नजर में तो फार्मेसी प्रोफेशन को रेगुलेट करने वाली फार्मेसी कौंसिल ऑफ इंडिया की भी शायद कोई भूमिका नहीं है. मैं यह बात कुछ उभरते प्रश्नों के आधार पर कह रहा हूँ.
सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या इस महामारी से लड़ने के लिए भारत सरकार फार्मेसी कौंसिल ऑफ इंडिया से किसी भी प्रकार की कोई सलाह ले रही है? क्या देश की विभिन्न राज्य सरकारें अपने-अपने राज्य में स्थित स्टेट फार्मेसी कौंसिल से कोई सलाह ले रही हैं? सरकार द्वारा गठित कोरोना से लड़ने के लिए गठित कमेटियों में कितने फार्मासिस्ट शामिल हैं?
अगर वास्तविक रूप से देखा जाए तो इस महामारी के समय में भी फार्मासिस्ट की दिनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं आया है. जिस प्रकार अन्य स्वास्थ्यकर्मियों को अपनी सेवाएँ कई शिफ्टों में देनी पड रही है, ऐसा फार्मासिस्ट के साथ नहीं है.
यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि फार्मासिस्ट की एक मात्र पहचान दवा की दुकान पर दवा वितरित करने वाले व्यक्ति के रूप में स्थापित हो चुकी है. इसके अतिरिक्त ना तो फार्मासिस्ट की कोई पहचान है और ना ही फार्मेसी फील्ड के पुरोधाओं ने कभी बनाने की कोई कोशिश की है.
दवा की दुकान पर भी फार्मासिस्ट की पहचान का संकट ही है क्योंकि अधिकांश फार्मासिस्ट दवा की दुकानों पर स्वयं कार्य ना करके अपना सर्टिफिकेट किराये पर दे देते हैं. फार्मासिस्ट की गैरमौजूदगी में इन दुकानों पर दवा का वितरण का कार्य या तो दुकान संचालक या अन्य कर्मचारी करते हैं.
दुकान संचालक एवं अन्य स्टाफ दवाओं के रखरखाव के लिए प्रशिक्षित नहीं होता है. जब बिना फार्मासिस्ट की उपस्थिति के ये लोग दवा वितरण एवं भंडारण का कार्य सफलतापूर्वक कर लेते हैं तो फिर वास्तव में फार्मासिस्ट की जरूरत दवा वितरण के लिए क्यों होनी चाहिए.
शायद इसी लिए समय-समय पर ये मेडिकल स्टोर संचालक सरकार से मेडिकल स्टोर पर फार्मासिस्ट की अनिवार्यता का विरोध करते हैं. दरअसल ये किसी गैरजरूरी आदमी को उसके नाम के बदले हर महीने का किराया नहीं देना चाहते हैं.
वैसे भी इस दुनिया में जब किसी का सब्स्टीट्यूट उपलब्ध होता है तो फिर ओरिजिनल की कोई इज्जत और अहमियत नहीं होती है.
फार्मासिस्ट को समाज, मेडिकल स्टोर, स्वास्थ्य विभाग और अन्य सरकारी अधिकारी एक ऐसे प्रोफेशनल के रूप में देखते हैं जिसका सब्स्टीट्यूट बड़ी आसानी से उपलब्ध हो जाता है. फार्मासिस्ट के कार्य को किसी के भी द्वारा कर सकने वाला कार्य समझा जाता है.
जब फार्मासिस्ट का कार्य कोई भी कर सकता है तो फिर फार्मासिस्ट की अहमियत कैसे होगी? आज इस महामारी के समय में भी अधिकाँश मेडिकल की दुकानों पर फार्मासिस्ट की फिजिकल उपस्थिति नगण्य ही है.
बहुत से फार्मासिस्ट तो उस शहर में ही मौजूद नहीं होते हैं जिस शहर में उनके नाम पर मेडिकल स्टोर संचालित हो रहा होता है. ये लोग साल में कभी-कभी अपना भाड़ा वसूलने के लिए दर्शन दे दिया करते हैं.
क्या आपने कभी सुना है कि कोई हॉस्पिटल संचालक अपने हॉस्पिटल में किसी डॉक्टर के नाम पर मरीजों को परामर्श सेवा दे रहा हो? क्या किसी नर्सिंगकर्मी की शिक्षा को भाड़े पर चलते देखा है?
मरीज के उपचार के लिए डॉक्टर और नर्स की फिजिकल उपस्थिति अनिवार्य है. कोई मरीज डॉक्टर या नर्स के सब्स्टीट्यूट से इलाज नहीं करवाना चाहता है जबकि उसी मरीज को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उसे दवा कौन वितरित कर रहा है.
दवा लिखने के लिए डॉक्टर और दवा खिलाने के लिए नर्स की सेवा जरूरी है. इनका मरीज के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध होता है. फार्मासिस्ट का मरीज के साथ दूर-दूर तक व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं होता है.
कई बार यह भी सुनने में आता है कि सरकारी सेवा में लगे हुए कुछ फार्मासिस्ट मरीजों को दवा उस रुतबे के साथ वितरित करते हैं जैसे कि ये मरीजों पर अहसान कर रहे हों. आखिर फार्मेसी प्रोफेशन के उच्च शिक्षित व्यक्तियों (पीएचडी, एम फार्म) को कहीं तो अपना रुबाब दिखाने का मौका मिल रहा है.
मरीज जब दवा की दुकान पर जाता है तो उसे कभी भी ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि वो किसी फार्मेसी में आया है. अधिकाँश दवा की दुकान पर किसी भी तरह की कोई पेशेंट काउंसलिंग नहीं होती है क्योंकि या तो इन दुकानों पर फार्मासिस्ट नहीं होता है और अगर होता है तो उसमे डॉक्टर की पुरातात्विक लिपि में लिखे प्रिस्क्रिप्शन को पढने के अतिरिक्त अन्य कोई महारथ नहीं होती है.
इस महामारी में भी फार्मासिस्ट की कोई अहमियत नहीं होने का सबसे बड़ा कारण बड़ी सहजता से फार्मासिस्ट का सब्स्टीट्यूट उपलब्ध होना ही है. जब डॉक्टर्स और नर्सिंगकर्मी सीधे तौर पर कोरोना से पीड़ित मरीजों को देख रहे हैं तब उस जगह फार्मासिस्ट की उपस्थिति सिवाए भीड़ बढाने के और क्या होगी? आवश्यक दवाइयाँ तो ये लोग अपने साथ वैसे ही रखते ही हैं.
कई उत्साही फार्मासिस्ट अपने आप को दवा निर्माता बताकर सोशल मीडिया में फार्मासिस्ट को कोरोना वारियर बताकर प्रसन्नता का अनुभव कर लेते हैं. इन लोगों को शायद ड्रग मैन्युफैक्चरिंग कम्पनीज में फार्मासिस्ट की हालत का पता नहीं है. यहाँ पर फार्मासिस्ट की जगह सामान्य ग्रेजुएट को अधिक तरजीह दी जाती है.
वैसे भी अगर हम अपने आप को दवा निर्माता कहकर कोरोना वारियर्स में शामिल करना चाहते हैं तो यह मात्र अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने वाली बात होगी. हमें यह भी याद रखना होगा कि दवाओं की तरह अन्य मेडिकल इक्विपमेंट्स (मास्क, पीपीई आदि) के निर्माण में भी बहुत से टेक्निकल और नॉन टेक्निकल लोग कार्यरत हैं.
हमें यह ध्यान में रखना होगा कि बन्दूक तो कई कंपनियाँ बनाती है लेकिन युद्ध में अपनी जान को जोखिम में डालकर उस बन्दूक को चलाने वाला सिपाही ही असली वारियर होता है. जो जान पर खेलता है वही योद्धा होता है. डॉक्टर्स और नर्सिंगकर्मी आज यही कर रहे हैं फार्मासिस्ट नहीं.
इसलिए फार्मासिस्ट को यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि बिना जरूरत के अहमियत नहीं होती है. पहले अपनी अहमियत बनाइये फिर सरकार और समाज से अहमियत की उम्मीद कीजिए. पहले अपनी नज़रों में ऊपर उठिए, कुछ ऐसा कीजिए जिससे समाज और सरकार दोनों फार्मासिस्ट को पहचानें.
अनेक देशों में अलग-अलग तरीकों से इन योद्धाओं के प्रति सम्मान प्रकट किया जा रहा है. भारत में भी इनके उत्साहवर्धन के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आह्वान पर कभी ताली बजाई जा रही है और कभी दिए जलाए जा रहे हैं.
इन स्वास्थ्यकर्मियों में डॉक्टर्स, नर्सिंगकर्मी, पैरामेडिकल स्टाफ, सफाई कर्मी आदि का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा है.
खास बात यह है कि इन स्वास्थ्यकर्मियों में फार्मासिस्ट का नाम नदारद है. फार्मासिस्ट के लिए ना तो कोई सम्मान प्रकट किया जा रहा है और ना ही इसको कोरोना वारियर्स में गिना जा रहा है. परंपरागत रूप से जिस प्रकार फार्मासिस्ट पहले उपेक्षित था ठीक उसी प्रकार फार्मासिस्ट आज भी उपेक्षित है.
इस बात का अंदाजा लगाना बिलकुल भी मुश्किल नहीं है कि जब वैश्विक महामारी के समय में भी स्वास्थ्य सेवाओं में फार्मासिस्ट की भूमिका की कोई अहमियत नहीं है तब सामान्य दिनों में फार्मासिस्ट की कितनी अहमियत होती होगी.
फार्मासिस्ट को भारत सरकार कितना जानती और मानती है, इसका अंदाजा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उस ट्वीट से लगाया जा सकता है जिसमे उन्होंने सभी देशवासियों से कोरोना योद्धाओं का सम्मान करने की बात कही है. इन्होंने इन कोरोना योद्धाओं में डॉक्टर्स, नर्सेज, सफाईकर्मियों एवं पुलिसकर्मियों को शामिल किया है.
विभिन्न राज्य सरकारें भी फार्मासिस्ट के साथ ऐसा ही व्यवहार कर रही हैं. लगता है कि फार्मासिस्ट की अहमियत ना तो सरकार की नजर में है और ना ही जनता की नजर में है.
ऐसा लगता है कि सरकार की नजर में तो फार्मेसी प्रोफेशन को रेगुलेट करने वाली फार्मेसी कौंसिल ऑफ इंडिया की भी शायद कोई भूमिका नहीं है. मैं यह बात कुछ उभरते प्रश्नों के आधार पर कह रहा हूँ.
सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या इस महामारी से लड़ने के लिए भारत सरकार फार्मेसी कौंसिल ऑफ इंडिया से किसी भी प्रकार की कोई सलाह ले रही है? क्या देश की विभिन्न राज्य सरकारें अपने-अपने राज्य में स्थित स्टेट फार्मेसी कौंसिल से कोई सलाह ले रही हैं? सरकार द्वारा गठित कोरोना से लड़ने के लिए गठित कमेटियों में कितने फार्मासिस्ट शामिल हैं?
अगर वास्तविक रूप से देखा जाए तो इस महामारी के समय में भी फार्मासिस्ट की दिनचर्या में कोई परिवर्तन नहीं आया है. जिस प्रकार अन्य स्वास्थ्यकर्मियों को अपनी सेवाएँ कई शिफ्टों में देनी पड रही है, ऐसा फार्मासिस्ट के साथ नहीं है.
यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि फार्मासिस्ट की एक मात्र पहचान दवा की दुकान पर दवा वितरित करने वाले व्यक्ति के रूप में स्थापित हो चुकी है. इसके अतिरिक्त ना तो फार्मासिस्ट की कोई पहचान है और ना ही फार्मेसी फील्ड के पुरोधाओं ने कभी बनाने की कोई कोशिश की है.
दवा की दुकान पर भी फार्मासिस्ट की पहचान का संकट ही है क्योंकि अधिकांश फार्मासिस्ट दवा की दुकानों पर स्वयं कार्य ना करके अपना सर्टिफिकेट किराये पर दे देते हैं. फार्मासिस्ट की गैरमौजूदगी में इन दुकानों पर दवा का वितरण का कार्य या तो दुकान संचालक या अन्य कर्मचारी करते हैं.
दुकान संचालक एवं अन्य स्टाफ दवाओं के रखरखाव के लिए प्रशिक्षित नहीं होता है. जब बिना फार्मासिस्ट की उपस्थिति के ये लोग दवा वितरण एवं भंडारण का कार्य सफलतापूर्वक कर लेते हैं तो फिर वास्तव में फार्मासिस्ट की जरूरत दवा वितरण के लिए क्यों होनी चाहिए.
शायद इसी लिए समय-समय पर ये मेडिकल स्टोर संचालक सरकार से मेडिकल स्टोर पर फार्मासिस्ट की अनिवार्यता का विरोध करते हैं. दरअसल ये किसी गैरजरूरी आदमी को उसके नाम के बदले हर महीने का किराया नहीं देना चाहते हैं.
वैसे भी इस दुनिया में जब किसी का सब्स्टीट्यूट उपलब्ध होता है तो फिर ओरिजिनल की कोई इज्जत और अहमियत नहीं होती है.
फार्मासिस्ट को समाज, मेडिकल स्टोर, स्वास्थ्य विभाग और अन्य सरकारी अधिकारी एक ऐसे प्रोफेशनल के रूप में देखते हैं जिसका सब्स्टीट्यूट बड़ी आसानी से उपलब्ध हो जाता है. फार्मासिस्ट के कार्य को किसी के भी द्वारा कर सकने वाला कार्य समझा जाता है.
जब फार्मासिस्ट का कार्य कोई भी कर सकता है तो फिर फार्मासिस्ट की अहमियत कैसे होगी? आज इस महामारी के समय में भी अधिकाँश मेडिकल की दुकानों पर फार्मासिस्ट की फिजिकल उपस्थिति नगण्य ही है.
बहुत से फार्मासिस्ट तो उस शहर में ही मौजूद नहीं होते हैं जिस शहर में उनके नाम पर मेडिकल स्टोर संचालित हो रहा होता है. ये लोग साल में कभी-कभी अपना भाड़ा वसूलने के लिए दर्शन दे दिया करते हैं.
क्या आपने कभी सुना है कि कोई हॉस्पिटल संचालक अपने हॉस्पिटल में किसी डॉक्टर के नाम पर मरीजों को परामर्श सेवा दे रहा हो? क्या किसी नर्सिंगकर्मी की शिक्षा को भाड़े पर चलते देखा है?
मरीज के उपचार के लिए डॉक्टर और नर्स की फिजिकल उपस्थिति अनिवार्य है. कोई मरीज डॉक्टर या नर्स के सब्स्टीट्यूट से इलाज नहीं करवाना चाहता है जबकि उसी मरीज को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि उसे दवा कौन वितरित कर रहा है.
दवा लिखने के लिए डॉक्टर और दवा खिलाने के लिए नर्स की सेवा जरूरी है. इनका मरीज के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध होता है. फार्मासिस्ट का मरीज के साथ दूर-दूर तक व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं होता है.
कई बार यह भी सुनने में आता है कि सरकारी सेवा में लगे हुए कुछ फार्मासिस्ट मरीजों को दवा उस रुतबे के साथ वितरित करते हैं जैसे कि ये मरीजों पर अहसान कर रहे हों. आखिर फार्मेसी प्रोफेशन के उच्च शिक्षित व्यक्तियों (पीएचडी, एम फार्म) को कहीं तो अपना रुबाब दिखाने का मौका मिल रहा है.
मरीज जब दवा की दुकान पर जाता है तो उसे कभी भी ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि वो किसी फार्मेसी में आया है. अधिकाँश दवा की दुकान पर किसी भी तरह की कोई पेशेंट काउंसलिंग नहीं होती है क्योंकि या तो इन दुकानों पर फार्मासिस्ट नहीं होता है और अगर होता है तो उसमे डॉक्टर की पुरातात्विक लिपि में लिखे प्रिस्क्रिप्शन को पढने के अतिरिक्त अन्य कोई महारथ नहीं होती है.
इस महामारी में भी फार्मासिस्ट की कोई अहमियत नहीं होने का सबसे बड़ा कारण बड़ी सहजता से फार्मासिस्ट का सब्स्टीट्यूट उपलब्ध होना ही है. जब डॉक्टर्स और नर्सिंगकर्मी सीधे तौर पर कोरोना से पीड़ित मरीजों को देख रहे हैं तब उस जगह फार्मासिस्ट की उपस्थिति सिवाए भीड़ बढाने के और क्या होगी? आवश्यक दवाइयाँ तो ये लोग अपने साथ वैसे ही रखते ही हैं.
कई उत्साही फार्मासिस्ट अपने आप को दवा निर्माता बताकर सोशल मीडिया में फार्मासिस्ट को कोरोना वारियर बताकर प्रसन्नता का अनुभव कर लेते हैं. इन लोगों को शायद ड्रग मैन्युफैक्चरिंग कम्पनीज में फार्मासिस्ट की हालत का पता नहीं है. यहाँ पर फार्मासिस्ट की जगह सामान्य ग्रेजुएट को अधिक तरजीह दी जाती है.
वैसे भी अगर हम अपने आप को दवा निर्माता कहकर कोरोना वारियर्स में शामिल करना चाहते हैं तो यह मात्र अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने वाली बात होगी. हमें यह भी याद रखना होगा कि दवाओं की तरह अन्य मेडिकल इक्विपमेंट्स (मास्क, पीपीई आदि) के निर्माण में भी बहुत से टेक्निकल और नॉन टेक्निकल लोग कार्यरत हैं.
हमें यह ध्यान में रखना होगा कि बन्दूक तो कई कंपनियाँ बनाती है लेकिन युद्ध में अपनी जान को जोखिम में डालकर उस बन्दूक को चलाने वाला सिपाही ही असली वारियर होता है. जो जान पर खेलता है वही योद्धा होता है. डॉक्टर्स और नर्सिंगकर्मी आज यही कर रहे हैं फार्मासिस्ट नहीं.
इसलिए फार्मासिस्ट को यह अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि बिना जरूरत के अहमियत नहीं होती है. पहले अपनी अहमियत बनाइये फिर सरकार और समाज से अहमियत की उम्मीद कीजिए. पहले अपनी नज़रों में ऊपर उठिए, कुछ ऐसा कीजिए जिससे समाज और सरकार दोनों फार्मासिस्ट को पहचानें.
लेखक, Writer
रमेश शर्मा {एम फार्म, एमएससी (कंप्यूटर साइंस), पीजीडीसीए, एमए (इतिहास), सीएचएमएस}
डिस्क्लेमर, Disclaimer
इस लेख में शैक्षिक उद्देश्य के लिए दी गई जानकारी विभिन्न ऑनलाइन एवं ऑफलाइन स्त्रोतों से ली गई है जिनकी सटीकता एवं विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। आलेख की जानकारी को पाठक महज सूचना के तहत ही लें। इसके अतिरिक्त इसके किसी भी उपयोग की जिम्मेदारी स्वयं उपयोगकर्ता की ही रहेगी।
अगर आलेख में किसी भी तरह की स्वास्थ्य सम्बन्धी सलाह दी गई है तो वह किसी भी तरह से योग्य चिकित्सा राय का विकल्प नहीं है। अधिक जानकारी के लिए हमेशा किसी विशेषज्ञ या अपने चिकित्सक से परामर्श जरूर लें।
Tags:
Pharmacy