Are Pharmacists Really Needed in Hindi

Are Pharmacists Really Needed? - क्या वास्तव में फार्मासिस्ट की जरूरत है?, 

फार्मासिस्ट की जरूरत कहाँ है?

फार्मासिस्ट एक अद्भुत शब्द है जिसकी पहचान एक दवा विशेषज्ञ के रूप में है। वर्तमान में यह उपाधि फार्मेसी क्षेत्र में दो वर्षीय डिप्लोमा और चार वर्षीय डिग्री धारक को प्रदान की जाती है।

यह उपाधि धारक व्यक्ति दवा से सम्बंधित सभी क्षेत्रों में विशेषज्ञ समझा जाता है। फार्मासिस्ट को दवा के निर्माण से लेकर उसके भंडारण और वितरण में जिम्मेदारीपूर्वक अहम भूमिका निभानें के लिए तैयार किया जाता है।

फार्मासिस्ट की समाज में एक प्रमुख भूमिका होती है, तथा जिस प्रकार डॉक्टर बिमारियों के परीक्षण में महारथ हांसिल रखता है, ठीक उसी प्रकार फार्मासिस्ट दवा के निर्माण, भंडारण तथा वितरण के क्षेत्र में विशेष ज्ञान रखता है।

फार्मासिस्ट का दवा के प्रति ज्ञान और जिम्मेदारी देखकर ही “जहाँ दवा वहाँ फार्मासिस्ट” का नारा दिया जाता है। एक कम्युनिटी फार्मासिस्ट के बतौर यह डॉक्टर और मरीज के बीच समन्वय स्थापित करता है।

यह मरीज को डॉक्टर के निर्देशानुसार दवा वितरित कर इन दोनों के बीच में एक प्रमुख भूमिका निभाता है।

हम किताबों में पढ़ने के साथ-साथ फार्मेसी के पुरोधाओं से भी सुनते आए हैं, कि जहाँ दवा होती है उस जगह फार्मासिस्ट की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है, परन्तु वास्तविक परिस्थितियाँ इससे एकदम भिन्न है।

क्या भारत में सचमुच फार्मासिस्ट की उतनी ही अधिक आवश्यकता है जितनी पढाई और बताई जाती है?

अगर सामाजिक रूप से देखा जाए तो फार्मासिस्ट को समाज में अभी तक बमुश्किल सिर्फ एक ही पहचान मिल पाई है और वो है दवा की दूकान पर उपस्थित वह व्यक्ति, जिसका काम दवा बेचने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

देखा जाये तो यह बात काफी हद तक सही प्रतीत होती है क्योंकि अधिकतर फार्मासिस्टों का ज्ञान इतना सीमित है कि उन्हें पर्ची पर दवा का नाम पढ़कर उसे देने के अलावा कुछ नहीं आता है।

इसकी जिम्मेदारी हमारी शिक्षा पद्धति पर जाती है जहाँ आज भी बीस पच्चीस वर्ष पूर्व निर्मित पाठ्यक्रम को पढ़ाया जा रहा है। हमारे फार्मेसी के आकाओं को इतनीं सी भी फुर्सत नहीं है कि वो इस महत्वपूर्ण क्षेत्र की तरफ ध्यान दें।

विधार्थी अप्रचलित पाठ्यक्रम को पढ़कर क्या हासिल कर पाएंगे? जब वो ये पाठ्यक्रम पढ़कर कार्यक्षेत्र में जाते हैं तब उन्हें पता चलता है कि जो उन्होंने पढ़ा है वो किसी काम का नहीं है और उन्हें पुनः शून्य से शुरू करना पड़ेगा।

विधार्थी भी इसमें कम दोषी नहीं है क्योंकि वो घर बैठे बैठे सुविधा शुल्क चुकाकर अपनी पढाई कर लेना चाहते हैं और कॉलेज इस प्रवृत्ति को बढ़ा रहे हैं क्योंकि उन्हें अपनी सीटें भरनी होती है।

अधिकतर कॉलेजों का प्रमुख उद्धेश्य शिक्षा का व्यापार है जिसको सरकार भी आँख मूँद के बढ़ावा देती है।

ऐसा देखने में आता है कि जिन कॉलेजों के पास कुछ भी साधन सुविधाएँ नहीं होते उन्हें कुछ दलालों द्वारा सरकारी मान्यताएँ चुटकियों में मिल जाती है। सरकारी निरीक्षण सिर्फ औपचारिकताओं के लिए ही किये जाते हैं।

केन्द्रीय और राज्य स्तरीय कौंसिल को फार्मेसी शिक्षा के उत्थान, निरीक्षण और आधुनिकीकरण के लिए बनाया गया था परन्तु ये सभी अपनी जिम्मेदारियों को निभानें में पूर्णतया अक्षम रहे हैं। आये दिन इन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहते हैं।

अपना पराक्रम दिखानें के लिए हम हर साल सात दिवसीय फार्मेसी वीक का आयोजन करते आये हैं जहाँ वही पुराने घिसे पिटे राग अलापे जाते हैं और होता वही है कि ढाक के तीन पात।

शायद फार्मेसी ही एकमात्र ऐसा क्षेत्र होगा जहाँ बिना उद्धेश्य के हर वर्ष सात दिवसीय जागरण का आयोजन होता है। शिक्षक भी बेसब्री से इन्तजार करते हैं कि कब सात दिवस की अघोषित और मनोरंजक छुट्टियों का माहौल आएगा।

जितने शिक्षक चाहिए होते हैं उनसे आधे भी शिक्षक नियुक्त नहीं किये जाते हैं और जो नियुक्त होते हैं उन्हें ओने पौने दिहाड़ी टाइप वेतन पर रखा जाता है जिसके परिणामस्वरूप बहुत से शिक्षक कुंठाग्रस्त हो जाते हैं और वो अध्यापन का कार्य पारंगतता के साथ नहीं कर पाते हैं।

किसी भी कार्य को करनें के लिए उसमे कार्यरत कर्मियों का प्रसन्न रहना बहुत जरूरी है क्योंकि जब तक कार्य को करनें वाले प्रसन्न नहीं होंगे तब तक पारंगतता के साथ कार्य का पूर्ण होना असंभव है। आज का युग आर्थिक युग है जिसमे अर्थ ही सबसे बड़ी खुशी देता है।

शिक्षकों को जब चाहे नौकरी से निकाल दिया जाता है जिससे वो हमेशा अनिश्चय की स्थिति में फंसे रहते है। सुनने में आता है कि बहुत से शिक्षक सिर्फ निरीक्षण के वक्त रखे जाते है और निरीक्षण के पश्चात उन्हें हटा दिया जाता है।

इन स्थितियों को रोकनें के लिए बहुत सी फार्मेसी टीचर्स असोसिएशन भी बनी हुई है जो सिर्फ मूकदर्शक बनी हुई है। इनमें सिर्फ इनके चुनाव के वक्त हलचल मचती है जब कोई प्रेसिडेंट, कोई वाईस प्रेसिडेंट का चुनाव पूर्ण शिद्दत के साथ लड़ता है।

चुनाव समाप्त होने के पश्चात फिर सन्नाटा पसर जाता है। कभी किसी असोसिएशन ने शिक्षक के लिए कुछ नहीं किया है क्योंकि इनकी नाक के नीचे शिक्षकों को कम वेतन और असमय नौकरी से निकाल दिया जाता है।

ये असोसिएशन्स प्रासंगिकता विहीन हैं क्योंकि इनके सर्वेसर्वा स्वयं किसी न किसी कॉलेज में उन्ही परिस्थितियों के बीच अपनें दिन गुजार रहे हैं।

विभिन्न फार्मेसी सम्मेलनों में भी सिर्फ ढोल पीटे जाते हैं सामान्य ज्ञान बढ़ाया जाता है और भोजन प्रसाद ग्रहण कर इतिश्री कर ली जाती है।

अब तो ये आलम है कि अगर गलती से कहीं फार्मासिस्ट की सरकारी नौकरी निकलती है तो विधार्थियों से ज्यादा शिक्षकों में उत्साह होता है।

विधार्थी और शिक्षक साथ साथ प्रतियोगी परीक्षा में बैठकर एक दूसरे के ज्ञान को चुनौती देते प्रतीत होते हैं और अधिकांशतः शिक्षकों से ज्यादा विधार्थी उत्तीर्ण हो जाते हैं।

फार्मासिस्ट को नौकरी चाहे डिप्लोमा स्तर की हो, उसमें मास्टर डिग्री और पीएचडी वाले भी पूर्ण उत्साह के साथ भाग लेते हैं और उत्तीर्ण होने पर अपना परम सौभाग्य समझकर उसे ज्वाइन करते हैं।

जिस क्षेत्र में शीर्ष उपाधि के पश्चात भी डिप्लोमा स्तर की नौकरी ज्वाइन करने पर उत्साह हो तब हम बखूबी अंदाजा लगा सकते हैं कि उस क्षेत्र में रोजगार की स्थिति क्या होगी।

दवा निर्माण उद्योग भी फार्मासिस्ट की ज्यादा जरुरत नहीं समझता है और यहाँ पर भी फार्मासिस्ट के लिए कोई स्थान आरक्षित नहीं है।

ये फार्मासिस्ट के स्थान पर विज्ञान में सामान्य डिग्रीधारक को रखना अधिक पसंद करते हैं क्योकि वे सुगमता से कम पारिश्रमिक पर उपलब्ध हो जाते हैं।

वैसे भी हमारे नियम कायदे यही कहते है कि विज्ञान का डिग्रीधारक 36 महीनों तथा फार्मेसी का डिग्रीधारक 18 महीनों पश्चात मैन्युफैक्चरिंग केमिस्ट के लिए योग्य हो जाता है।

सिर्फ इन 18 महीनों के अंतर को पाटनें के लिए कोई फार्मेसी में डिग्री क्यों करे? यह नियम बदलना चाहिए तथा दवा निर्माण उद्योग में भी फार्मासिस्ट की प्रमुख भूमिका होनी चाहिए।

विभिन्न केमिस्ट असोसिएशन्स पर सिर्फ और सिर्फ दवा व्यापारियों का कब्जा है। दवा व्यापारी केमिस्ट कैसे हो सकते हैं?

केमिस्ट तो सिर्फ और सिर्फ फार्मासिस्ट ही हो सकता है, फिर जिनका फार्मेसी से दूर-दूर का भी नाता नहीं है वे केमिस्ट कैसे कहलाते है?

दवा व्यापारियों के लिए सिर्फ और सिर्फ दवा व्यापार संघ, दवा व्यापारी असोसिएशन आदि होने चाहिए।

फार्मासिस्टों को इस तरफ सोचना चाहिए कि वो अपना नाम जिसे बहुत परिश्रम से हासिल किया जाता है उसे किसी और को क्यों दे रहे हैं?

क्या हम ये परोपकार सिर्फ इसलिए कर रहे हैं क्योंकि वो हमारें लाइसेंस को किराए पर रखने की कृपा करते हैं?

हमें इन सभी स्थितियों से बाहर निकलकर अपने फार्मेसी क्षेत्र के उत्थान में योगदान देना होगा तथा हमारे शीर्षस्थ लोगों को मजबूर करना होगा कि वो इस तरफ ध्यान दें।

वैसे आजकल भूतपूर्व और वर्तमान विधार्थियों द्वारा कुछ आर्गेनाईजेशन बनाये गए हैं जो इस दिशा में सराहनीय कार्य कर रहे हैं तथा उनकी जागरूकता और संघर्ष की वजह से फार्मासिस्टों और ड्रग इंस्पेक्टरों के नए पद सृजित हो रहे हैं और बेरोजगार युवाओं को रोजगार मिलना शुरू हुआ है।

फार्मासिस्ट को अपने वजूद को प्रदर्शित करना होगा। इसे समाज तथा सरकार को यह बताना होगा कि हेल्थ सिस्टम में फार्मासिस्ट की भी उतनी ही अधिक महत्वपूर्ण भूमिका है जितनी अधिक नर्स या डॉक्टर की होती है।

लेखक, Writer

रमेश शर्मा {एम फार्म, एमएससी (कंप्यूटर साइंस), पीजीडीसीए, एमए (इतिहास), सीएचएमएस}


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